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इन दिनों गाँव में जागरण मेला लग जाता है |इस तपस्या अनुष्ठान से गाँव के रोग शोक सभी प्रकार की बाधाएं दूर होती है | २२ दिन बाद अरका भोग पूजा के बाद ये तपस्वी अपने घर चले जाते है | तब ये सामान्य मनुष्यों का व्यवहार व बर्ताव करते है | ऐसे तपस्या अनुष्ठान कुमाऊ गडवाल में परम्परागत तरीके से होते है | गडवाल में भी पञ्च पांडवों की पूजा होती है रात में पञ्च पांडवों तथा द्रोपदी का आह्वाहन भी होता है |
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स्वामी परमानन्द जी के संबंद में यहाँ यह कहना चाहता हूँ कि मात्र ८ बर्ष कि अवस्था में ही परमानन्द जी के शरीर में सिद्ध सैमदेवज्यु का अवतार भाव का प्रवेश यदा कदा हो जाता था | जो इनके तपस्वी रूप कि पहचान थी |आठ बर्ष से १४ बर्ष कि अवस्था तक आप में यह सैमदेवज्यु का देवी भाव बना रहा | साधना एवं तपस्या कि भावना आप में बचपन से ही थी |बैसी तपस्या अनुष्ठानों का भी  आपके बाल जीवन में बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा था | बचपन में आपने जब गाँव के बुजुर्ग लोगो को तपस्वी वेश में देखा तो आपके कोमल ह्रदय पर इसकी गहरी छाप पड़ी और आपके भीतर तपस्या का संस्कार उदित हुआ |


 

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परमानन्द जी में सिद्ध सैमदेव का अवतार भाव होता था | आपके वंशज तथा माता -पिता शिव के परम उपासक थे | सिद्ध सैम तथा हरज्यु का धुना आपके गाँव में ही है | हरज्यु कुमाउनी में गोरखनाथ जी को ही कहा जाता है |
प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने के उपरांत आप दिल्ली चले गए | १५ या १६ बर्ष कि छोटी उम्र में ही नौकरी करने लग गए |मौसम विभाग में आपको स्थाई नौकरी भी मिल गई | सन १९५२ में जब आप मौसम विभाग में ही नौकरी करते थे | तब आपका संपर्क उत्तराखंड गडवाल के महापुरुष संत विभूति श्री हंस जी महाराज से हुआ | सभवत आप सन १९५२ में श्री हंस जी महाराज के संपर्क में आये तब श्री हंस जी आत्म ज्ञान का प्रचार करते थे | और आनंद गद्दी की दूसरी पादशाही महान संत बिभूति परम हंस स्वरूपानंद  जी महाराज के शिष्य थे |

 

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में जहाँ तक अनुभव करता हूँ कि कुमाऊ उत्तराखंड कि संत बिभूति श्री परमानन्द जी तथा गडवाल उत्तराखंड कि महान बिभूति महापुरुष श्री हंस जी महाराज का दोनों का संपर्क एक अपूर्व घटना थी | श्री हंस जी महाराज ने प्रथम भेट में ही परमानन्द जी को अपना स्नेही मित्र बना लिया था. शायद दोनों ही आत्मा एक दुसरे का कार्य पूरा करना चाहते (शायद राम और हनुमान का मिलन हो गया) परन्तु रहस्य का बिषय यह था कि परमानन्द जी ने अपनी लौकिक तथा अलौकिक क्षमता कि संभावना को अपने आप में समेटते हुए श्री हंस जी महाराज को अपना श्रेष्ठ पुरुष माना और उनके प्रति आजीवन सेवा भाव का दायित्वा पूरा किया |यधपि परमानन्द जी में वे गुण तथा सम्भावनाये मौजूद थे | जो उन्हें एक स्वम्भू गुरु बना देने के लिए प्राप्त थे | यधपि ये सब गुण समता तथा सम्भावनाये श्री हंस जी महाराज के शरिरोप्रांत बाहर भी छलकती रही परन्तु छलकते हुए भी उन्होंने अपना कर्तव्य व दायित्वा श्री हंस जी के परिवार के प्रति अपने जीवन पर्यत्न कभी नहीं छोडा |व्यक्तिगत रूप से उन्होंने अपना विकास एक स्वतंत्र महापुरुष के रूप में भी किया जो गुण उनमे आज भी विधमान है |

 

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इतना होना पर भी परमानन्द जी छोटे व्यक्तित्व वाले नहीं थे कुमाऊ का पुरुष होने के नाते चाहे इसमें स्वार्थ ही छुपा हो परन्तु स्वार्थ ही छुपा रहने दीजिये -कुमाऊ के उनके परिचित लोग उन्हें शक्तिशाली संत के रूप में ही याद करते रहेंगे परन्तु फिर भी परमानन्द जी ने श्री हंस जी महाराज तथा उनके परिवार वंश को आदेर्निये ही माना | श्री हंस जी महाराज ने प्रथम भेट में ही परमानन्द जी की बिशेषता को परख लिया था और उन्हें स्वतंत्र रूप से कुमाऊ उत्तराखंड हिमालय में आत्मज्ञान प्रचार हेतु भेज दिया |श्री हंस जी की संस्था के तत्वाधान में परमानन्द जी ने आत्मज्ञान का प्रचार किया | सत्संग आत्मज्ञान के प्रचार के साथ -साथ परमानन्द जी ने ही कुमाऊ उत्तराखंड एवं गडवाल उत्तराखंड में श्री हंस जी महाराज का परिचय दिया था गडवाल में भी कुछ समय परमानन्द जी ने प्रचार किया | 

 

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परमानन्द जी उत्तराखंड में धर्म प्रचार के साथ साथ अपनी साधना एवं तपस्या भी करने लगे  | उत्तराखंड के अनेक तपस्या एवं साधना स्थलियों एवं सिद्ध पीठों में परमानन्द जी ने अपनी साधना तपस्या संपन्न की |तपस्वी ब्रह्मचारी जीवन निर्जन एकांत स्थानों में बीतने लगा | अपनी साधना तपस्या एवं प्रचार कार्य के दरमियान प्राकृतिक एवं सामाजिक उतार चदाव देखे | विपरीत परिस्तिथियों का भी आपने सामना किया व धर्म प्रचार में संघर्ष भी | साधना एवं प्रचार के  दृष्टी कोड से आप सदा कुमाऊ उत्तराखंड में ही बने रहे जैसे आपने कुमाऊ के लिए ही जन्म लिया हो |कुमाऊ परमानन्द जी ने जीवन पर्यंत नहीं छोडा | कुमाऊ के काकडी घाट नामक स्थान में भी आप रहे है |खैरना नदी में काकडी घाट ,सुयाल बाड़ी , चोपड़ा ,मरकीना , बिरखन,स्युडा , आटाव्रता , चमडिया , लोहाली , जौरासी आदि आदि स्थान भवाली अल्मोड़ा मार्ग पर इसी खैरना नदी के किनारे पड़ते है |यह छेत्र परमानन्द जी को अधिक प्रिय था | अपने अपरिचित -ब्रह्मचारी जीवन में आपने एकांत मंदिरों , घाटों में ही बिताया यानि निर्जन जहाँ आपको समाज के असामाजिक तत्वों द्वारा परेसान करने की कोशिश भी की जाती थी |लिकिन आप उसे भी प्रकृति के द्वारा सहस एवं धैर्य की परीक्छा समझ कर सब कुछ सहन करते थे |एवं संघर्ष भी करते थे |कहीं कहीं आपको समाज के लोगों के साथ या मनचले युवकों के साथ संघर्ष तथा वाक संघर्ष  भी करना पड़ता था |वस्तुत: अपने वाक संघर्ष एवं तर्क वाद विवाद में भी सदैव आप सफल रहे है |क्योंकि आपको अपने उपर यानि अपनी आत्मशक्ति में विस्वास था परमपिता परमात्मा में भक्ति ,अपने अनुभूति पर भक्ति ज्ञान में निश्चय एवं तपस्या बल पर स्वाभिमान था |अत: आपका भावी मार्ग सुस्पस्ट होता गया |


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