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स्वामी जी के जीवन के दो आयाम है - एक तो सामाजिक , जो सम्पूर्ण कुमाऊ के जनमानस के लिए है - दूसरा संस्थागत जीवन यह केवल मात्र एक संस्था तक सीमित रह जाता है यह केवल संस्था के लिए ही उपयोगी है | परमानन्द जी का जीवन दोनों ही द्रष्टि कोड़ों से अध्यन किया जा सकता है | यहाँ मैं उनके उनके संस्थागत जीवन का भी समाजीकरण कर रहा हूँ | क्योंकि किसी भी संत को एक परिवार या किसी संस्था तक ही नहीं जोड़ा जाना चाहिंए , वरन सम्विगत भी देखा जाना चाहिए | इससे लाभ के स्थान  पर हनी अधिक होती है | वस्तुत: एक संस्था के संस्थापक या गुरु को भी स्वयं को अपने आप को अपनी स्थापित की हुई संस्था से नहीं जोड़ना चाहिए | स्वामी परमानन्द -कुमाऊ उत्तराखंड के अनेक साधना तपस्या स्थलियों एवं प्राचीन सिद्ध मंदिरों में भी रहे है |

 

कहीं कहीं इन्हे विकट एवं डरावने स्थानों में भी रहना पड़ा है |  जहाँ साधारण स्थिती में कोई रह नहीं सकता |परन्तु ये निडर थे ,साहस के धनी थे इसलिए इन्होने विकट एवं डरावने स्थानों का भी मुकाबला किया | बीर साधनाये यदपि परमानन्द जी ने नहीं की है परन्तु फिर भी ये बीर साधनाओं के लिए भी योग्य हो सकते थे |


 

 


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