पूज्यनीय महात्मा श्री परमानन्द जी महाराज

 

मैं जिस संत बिभूति में बारे यहाँ (चर्चा) लिखना चाहता हूँ | उनका जीवन परिचय देने से पूर्व उनकी आत्म अनुभूति की मीमांशा करना उपउक्त मानता हूँ | क्योंकि आत्म अनुभूतिके मार्ग में चलकर ही इश्वेरीये बोध हो सकता है | यह भी नेसेर्गिक नियम है कि सम्पूर्ण स्रष्टि को खंड खंड में देखना हमारी अज्ञानता का सूचक है | जब हम द्वैत को मिटाकर अद्वैत की आध्यात्मिक भूमि में स्तिथ हो जाते है ,तब मुक्ति का मार्ग खुल जाता है |

हमने  बिन्दुखत्ता आश्रम में कुमाऊ उत्तराखंड की संत बिभूति स्वामी परमानन्द की स्थिति आत्मवत देखी |  उनका मन रोगी नहीं था | उनका शरीर रोगयुक्त था , शरीर स्वस्थ स्थति में नहीं था | संस्कार चाहें कुछ भी रहा हो - रोगी होने का कष्ट शरीर में बहुत दिखाई देता था -देखने वाला उनके शरीर की स्थिति देखकर द्रवित हो जाता और किसी भी व्यक्ति को शरीर की स्थिति देखकर कष्ट अवश्य होता है | वे वैशाखी के सहारे चलते  बड़ी ही कष्ट दायक स्थिति में बाहर भीतर जाते |

यहाँ तक कि वे कई एक बार अपने शरीर से हिल दुल सकने में असमर्थ , परन्तु फिर भी उनके मुख मंडल में सहज मुस्कान दिखाई देती | वे अपने शरीर के तल पर नहीं जीते है वरन वे आत्म संतुष्ट है |


 

रोग को वे शरीर का धर्म मानते है , शरीर नाशवान है और नाशवान के प्रति उनका ममत्व नहीं है | उनका कहना है कि शरीर तो कपडे कि भांति है |कपडा फटने पर उसको सिल दिया जाता है , उसमे  टल्ली लगा दी जाती है | इसी प्रकार शरीर रूपी कपडे में टल्ली लगाना ही इलाज करना है | संत कबीर ने भी शरीर को चोला मानते हुए कहा है -"कबीर चोला हुआ पुराना कब तक सीए दरजी |" वे रोगी के भाव में नहीं है वे रोगमुक्ति के लिए जगदम्बा माँ से प्रार्थना भी नहीं करना चाहते और शारीरिक भाव में जीते ही नहीं |


श्री रामकृष्ण परम हंस जी के गले में कैंसर था |एक बार उनके किसी शिष्य ने उनसे रोगमुक्ति के लिए माँ काली से प्रार्थना करने का निवेदन किया था परन्तु परमहंस जी ने कहा था कि में रोगी हूँ ही नहीं मेरा मन शरीर या रोग के तल पर उतरता ही नहीं और न ही मुझे ऐसा भान है कि मैं सचमुच  रोगी हूँ मैं तो आत्मवत जीता हूँ |


 

मेरा ऐसा विचार ही नहीं हुआ और न मैंने सोचा ही कि मैं रोगी हो गया हूँ |परमहंस जी अपने  जीवन के अंतिम समय तक अपने भक्तों शिष्यों साधकों को दर्शन देते रहे और स्वाभविक रूप से उपदेश भी करते रहे | आत्मचर्चा सुनाते रहे | उनका मुख मंडल आभायुक्त बना रहा | स्वामी परमानन्द जी मैं भी मुझे कुछ ऐसे ही लक्षण दिखाई दिए | ज्ञानी लोग किसी भी कष्ट में घबराते नहीं | सुख-दुःख में समभाव होना ही आत्मनिष्ठ पुरुषों का स्वभाव एवं लक्षण है |

स्वामी परमानन्द जी के जीवन चरित्र कि मीमांसा से पूर्व आत्मजीवनी कि मीमांसा करूँगा |
आत्म जीवनी ही किसी विद्वान , विचारक , समाज सुधारक , संत महात्मा या महापुरुषों कि निधि होती है | भारतीये जीवन पद्यति कि यह विशेषता या परंपरा रही है कि हम जैसे है वैसे ही हमें दूसरो के सामने अभिव्यक्त होना चाहिए | मनसा - वाचा - कर्मणा का समन्वय होता है | जीवन चरित्र में |


 

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वस्तुत: जीवन परिचय में अनेक विषयों का समन्वय हो जाता है | हमें किसी के जीवन चरित्र से जन्म , वंश कुल ,आचार -विचार , परंपरा , संस्कृति धर्मं साहित्य , कला समाजनीति ,इतिहास , दर्शन , शिक्षा ,राजनीती ज्ञान विज्ञान , ज्योतिष ,व्यावहारिक, ज्ञान आदि का परिचय मिलता है हमारा सम्पूर्ण धर्मशास्त्र , दर्शन , साहित्य , विज्ञान , कला , इतिहास , संस्कृति या कुछ भी हमारा विश्व साहित्य है वह जीवन परिचयों से भरा पड़ा है |


आध्यात्म धर्मं दर्शन , संगीत , ज्योतिष ,इतिहास समाज शास्त्र , विज्ञान ,राजनीती कानून , कला संस्कृति , सभ्यता , शिक्षा आदि कि पुस्तकों में जीवन परिचय प्रथमत: होता है | यह सब वयक्तित्व पर आधारित होता है जो व्यक्ति जितना बड़ा या महान होता है उसका वयक्तित्व भी उतना ही महान होता है |


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